खुली खिड़की से दिन भर झाँकता हूँ मैं हर चेहरे में तुझ को ढूँढता हूँ तुझे मैं किस तरह पहचान पाऊँ कि अपने आप से ना-आश्ना हूँ जहाँ इंसान पत्थर हो चुके हैं मैं उस बस्ती में कैसे जी रहा हूँ जहाँ से कल मुझे काटा गया था वहीं से आज मैं फिर उग रहा हूँ मैं इस संगीन सन्नाटे में 'क़ाएम' किसी तूफ़ाँ की आहट सुन रहा हूँ