ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली कासा लिए गदा का आया है चाँद ख़ाली सन्नाहटा जुदा है और बे-ख़ुदी निराली है मेरे जी के हक़ में ये अब्र बर्स-गाली मजनूँ तो बावला था जिन राह ली जंगल की स्याना वही कि जिस नीं कि शहर की हवा ली लोहू में लोटता है बख़्त-ए-सियह का बरजा काली घटा में ज़ेबा लागे शफ़क़ की लाली