ख़ुशी ज़रूरी नहीं सिर्फ़ ज़िंदगी के लिए मता-ए-ग़म भी ज़रूरी है आदमी के लिए न होगा राएगाँ उस शख़्स का कोई सज्दा जो दिल से सर को झुकाता है बंदगी के लिए ये कैसी आग लगाई है नफ़रतों की यहाँ तरस रहा है हर इक शख़्स इक हँसी के लिए पता नहीं तुम्हें ये काम कितना मुश्किल है रह-ए-वफ़ा में निकल आए आशिक़ी के लिए तू बे-नक़ाब सर-ए-बज़्म साक़िया आ जा तरस रही है मिरी आँख मय-कशी के लिए तुम्हारी याद की ख़ुशबू मिली मुझे हर पल उठाया जब भी क़लम मैं ने शायरी के लिए हद-ए-निगाह यहाँ धूप ही का सहरा है 'हिरा' बताओ कहाँ जाएँ तिश्नगी के लिए