कि इस से पहले ख़िज़ाँ का शिकार हो जाऊँ सजा लूँ ख़ुद को मुकम्मल बहार हो जाऊँ उतारने को पहाड़ों से धूप घाटी में मैं कोई चीड़ कोई देवदार हो जाऊँ नहीं हूँ तुझ से मैं वाबस्ता ऐ जहाँ लेकिन ये सोचता हूँ कि अब होशियार हो जाऊँ न भाए लोग यहाँ के न शहर ही ये मुझे मगर मैं ख़ुद से ही कैसे फ़रार हो जाऊँ भले हों तैश में लहरें मगर किसे परवाह मैं कूद जाऊँ तो दरिया के पार हो जाऊँ कोई जवाब तो सूरज के ज़ुल्म का भी हो मैं बारिशों की जो ठंडी फुवार हो जाऊँ