किस की आमद से बहाराँ हुआ मस्कन मस्कन आज गुल खिलते रहे चार सू गुलशन गुलशन वो जो उठी थी मिरी सम्त उचटती सी निगाह कर गई राख सकूँ का मिरे ख़िरमन ख़िरमन साँस हिद्दत से किए रखती है मुझ को सरशार कौन पैकर में मिरे बस गया धड़कन धड़कन देखिए उस बुत-ए-काफ़िर के सताने की अदा ख़्वाब में दिखता है तो भी पस-ए-चिलमन-चिलमन लूट कर ले गया मुझ से वो मिरा अपना वजूद अब तो अपना सा लगे राह का रहज़न रहज़न वक़्त रुख़्सत भी नहीं आने दी आँखों में नमी सुब्ह-दम तर था मगर फूलों का दामन दामन कैसे कह दूँ मैं नहीं मुंतज़िर उस की 'रेशम' तन की दीवार में दो आँखें हैं रौज़न रौज़न