किस की मेहनत के ये शहकार नज़र आते हैं पेड़ जो रह में समर-दार नज़र आते हैं और दस्तार की तज़हीक भला क्या होगी सर कटे साहब-ए-दस्तार नज़र आते हैं क्या हुआ हब्स-ज़दा है जो मकीनों का मिज़ाज घर के कमरे तो हवा-दार नज़र आते हैं भूक फ़ाक़ों से बग़ल-गीर हुई है ऐसे शहर में क़हत के आसार नज़र आते हैं उन के अंदर का तो इंसान है रेज़ा-रेज़ा लोग क़ामत में जो कोहसार नज़र आते हैं अपनी हर बात पे अड़ जाते हैं बच्चों की तरह सर-फिरे साहब-ए-किरदार नज़र आते हैं हर जबीं पर है सजी झूट की सुर्ख़ी ऐ 'जान' अब तो इंसान भी अख़बार नज़र आते हैं