किस को बताते किस से छुपाते सुराग़-ए-दिल चुप साध ली है ज़ख़्म दिखाया न दाग़-ए-दिल कैसे करें बयान ग़म-ए-जाँ की दास्ताँ ऐ काश गुल खिलाए हमारा ये बाग़-ए-दिल गुज़रे हमारी ज़ीस्त के अय्याम इस तरह लबरेज़ आँसुओं से है गोया अयाग़-ए-दिल जब राख बन गए तो कहा ये हरीफ़ ने जल जल के वो जलाते रहे हैं चराग़-ए-दिल जिस से मिले तवील ज़माना गुज़र गया शायद उसी के ज़ेहन में हो कुछ सुराग़-ए-दिल चाहत की अब तो कोई भी हसरत नहीं रही सरसब्ज़ उस की याद से फिर भी है बाग़-ए-दिल रखती नहीं 'सबीला' कभी ऐब पर नज़र मसरूफ़ प्यार में रहा इस का फ़राग़-ए-दिल