किस लिए सब को अजब बोझ लगा सर अपना ले के महफ़िल में जो पहुँचा मैं कटा सर अपना हाथ लपके तो बहुत पहुँचे न गर्दन तक भी न मगर अहल-ए-नज़र थे न झुका सर अपना रस्म फिर रस्म है ठहरा है लहू ही जो सुहाग चमक ऐ तेग़-ए-हवा ले ये रहा सर अपना सब हवा भूल गई सरकशी-ओ-शह-ज़ोरी इक ज़रा दोश-ए-हवा पर जो उड़ा सर अपना हम ने ठोकर भी अगर खाई तो घर आ कर ही अपनी दहलीज़ ही से जा के लगा सर अपना बस कि अब देखना है अपने लहू से रिश्ता ख़्वाब में देखता हूँ तन से जुदा सर अपना कम से कम भूल गए वार तो शमशीरों को 'तल्ख़' जाने दो भुला दो जो गया सर अपना