किस लिए सहरा के मुहताज-ए-तमाशा होजिए चाक कीजे सीने को और आफी सहरा होजिए कुश्ता-ए-लब हो के कीजे जावेदाँ अब ज़िंदगी क्यूँ अबस मिन्नत-कश-ए-ख़िज़्र-ओ-मसीहा होजिए चश्म-ए-अहवल सब को देखे है ज़ियादा आप से ऐन बीनाई है गर इस तरह बीना होजिए कब तलक सर-गश्ता रहिए दिन को मिस्ल-ए-गर्द-बाद रात को जूँ शम्अ' जलने को मुहय्या होजिए इस क़दर हम दिल-गिरफ़्ता हैं कि मुश्किल है बहुत उस के बंद-ए-जामा वा होने पे भी वा होजिए मुझ से ये महजूबी और दुश्मन से ऐसा इख़्तिलात शर्म कीजे बेवफ़ाई में न रुस्वा होजिए आना यूँ तेवरी चढ़ाए मुँह बनाए फ़ाएदा गर यही सूरत है मत तशरीफ़-फ़रमा होजिए बुल-हवस का यूँ हदफ़ कीजे निशाना तीर का ग़ाफ़िल अपनी क़दर से बे-दर्द इतना होजिए जूँ जरस बाम-ओ-दर-ए-हर-ख़ाना से उट्ठेगा शोर मत सफ़र से हश्र बरपा साज़-ए-सुह्हा होजिए ख़ाना वीराँ कर के दीवाने बने तिस पर 'रज़ा' कुछ न होए फिर भला क्या कीजिए क्या होजिए