किस मुँह से ज़िंदगी को वो रख़्शंदा कह सकें जो मेहर-ओ-माह को भी न ताबिंदा कह सकें वो दिन भी हूँ ग़ुबार छटें आँधियाँ हटें और गुल को रंग-ओ-बू का नुमाइंदा कह सकें ताज़ा रखें सदा ख़लिश-ए-ज़ख़्म को कि हम जो अब न कह सके कभी आइंदा कह सकें ज़िंदाँ में कोई रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो हो कि लोग जिस हाल में भी देखें हमें ज़िंदा कह सकें हर शय बदल रही है अजब उजलतों में रंग कोई तो नक़्श हो जिसे पाइंदा कह सकें दिल के सिवा है कौन सा ऐसा चराग़ शाम बे-नूर हो के भी जिसे रख़्शंदा कह सकें सदियों नवा-गरों को मयस्सर न आ मिले वो गीत जिन को हसरत-ए-साज़िंदा कह सकें इस दौर में हर इक को है ख़ुद अपनी जुस्तुजू कोई नहीं जिसे तिरा जोइंदा कह सकें हर सू उदास चेहरे हैं इतने कि अब 'नसीम' किस को दयार-ए-दर्द का बाशिंदा कह सकें