किस तरह बे-मौज और ख़ाली रवानी से हुआ बे-ख़बर दरिया कहाँ पर अपने पानी से हुआ बढ़ रही थी एक बस्ती से मिरी बेगानगी मसअला मेरा न हल नक़्ल-ए-मकानी से हुआ अपने होने का मुझे ख़ुद ही दिया उस ने सुबूत आश्ना उस से उसी की इक निशानी से हुआ कह रहा था वो कि कैसे कट रहे थे उस के दिन मैं गिरफ़्ता-दिल बहुत उस की कहानी से हुआ इक जगह की साफ़ और ताज़ा हवा अच्छी लगी कुछ इलाज-ए-दिल वहाँ के सादा पानी से हुआ किस क़दर ग़म-ख़्वार था वो शहर और हमदर्द लोग इस का कुछ अंदाज़ा अपनी राएगानी से हुआ रुत बदल जाने से पीला पड़ गया फ़र्श-ए-चमन ज़र्द पेड़ों का बदन बर्ग-ए-ख़िज़ानी से हुआ कर रहा हूँ मैं ज़बाँ को इक बनावट से रिहा लफ़्ज़ ज़िंदा फिर मिरी सादा-बयानी से हुआ मेरे उस के दरमियाँ जैसे कभी कुछ भी न था ऐसा 'शाहीं' बस ज़रा सी बद-गुमानी से हुआ