किसे हम अपना कहें कोई ग़म-गुसार नहीं हमें जब अपने पराए पे ए'तिबार नहीं हम अपने दौर की सच्चाइयों को लिखते हैं क़लम हमारा किसी का तो मुस्तआ'र नहीं जो बे-वफ़ा थे वही लोग पा गए ए'ज़ाज़ मिरी वफ़ाओं का अब तक कहीं शुमार नहीं हमारे सर पे बरस जाएँगे कहाँ पत्थर तुनक-मिज़ाजी-ए-मौसम का ए'तिबार नहीं दुआएँ दे के जो बच्चों को शहर भेजेंगे अब ऐसे गाँव में कोई बुजु़र्गवार नहीं हज़ार मुफ़लिस-ओ-नादार मैं सही 'रहबर' ख़ुदा का शुक्र किसी का भी क़र्ज़-दार नहीं