किसी हसरत-ज़दा ने ख़ुद-कुशी मंज़ूर की दिल से सदा लब्बैक की सुन कर ज़मीन-ए-कू-ए-क़ातिल से ख़ुदा के वास्ते दम भर तो ऐ बाद-ए-अजल थम जा कि ले लूँ कुछ हवा मैं दामन-ए-शमशीर-ए-क़ातिल से ठहरना ओ दिल-ए-बेताब फिर तू भी तो सीने में निकल आए तड़प कर मौज जब आग़ोश-ए-साहिल से ज़मीं से आसमाँ तक मेरी बेताबी का चर्चा है सबक़ लेती है बिजली आ के मेरे क़ल्ब-ए-बिस्मिल से कोई तदबीर सोचो ताकि दिल आ जाए क़ाबू में कहीं मैं क़ैद हो सकता हूँ इन तौक़-ओ-सलासिल से अभी देखो तो मेरी मश्क़ किस हद तक पहुँचती है बना लूँगा कभी तुम को भी अपना जज़्ब-ए-कामिल से गिरा था क़तरा-ए-अव्वल जो मेरे ख़ून-ए-नाहक़ से उठी थी सुर्ख़ इक आँधी ज़मीन-ए-कू-ए-क़ातिल से वो अब आते ही होंगे और याँ पर आ के बैठेंगे ख़ुदावंदा ये बातें कब तलक 'आलिम' करे दिल से