किसी जल्वा-गाह-ए-मजाज़ में कहीं रह गया मैं तिरे बदन की नमाज़ में कहीं रह गया कई और फ़र्ज़ भी थे जबीन-ए-नहीफ़ पर मिरा ज़ौक़ इज्ज़-ओ-नियाज़ में कहीं रह गया जहाँ मंज़िलों की लपक थी चश्म-ए-फ़रेब में मैं उन्ही नशेब-ओ-फ़राज़ में कहीं रह गया मिरे हर्फ़-ए-गिर्या-कुनाँ में ऐसी गिरह पड़ी मिरा नग़्मा सोज़-ए-हिजाज़ में कहीं रह गया पड़ी ऐसी ज़र्ब-ए-गुमान रख़्त-ए-यक़ीन पर कि मैं राह-ए-दूर-दराज़ में कहीं रह गया मुझे नींद आएगी ख़्वाब-गाह-ए-जहाँ में क्या मिरा दिल तो महफ़िल-ए-नाज़ में कहीं रह गया किसी लब पे गोशा-नशीं था हर्फ़-ए-सहर मिरा जो नवा-ए-शब के गुदाज़ में कहीं रह गया मुझे अपनी कोई ख़बर न थी तिरे ध्यान में मिरा इश्क़ ख़ू-ए-अयाज़ में कहीं रह गया मैं मगन था ऐसा जहान-ए-ग़म के तवाफ़ में मिरा सब जुनूँ तग-ओ-ताज़ में कहीं रह गया वो जो एक वा'दा-ए-शौक़ था तिरी दीद का किसी चश्म-ए-हीला-तराज़ में कहीं रह गया मिरे भेद इफ़्शा हुए न उजलत-ए-वक़्त से मैं नवा-ए-कुन ही के राज़ में कहीं रह गया