किसी जानिब से भी परचम न लहू का निकला अब के मौसम में भी आलम वही हू का निकला दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला इश्क़ इल्ज़ाम लगाता था हवस पर क्या क्या ये मुनाफ़िक़ भी तिरे वस्ल का भूका निकला जी नहीं चाहता मय-ख़ाने को जाएँ जब से शैख़ भी बज़्म-नशीं अहल-ए-सुबू का निकला दिल को हम छोड़ के दुनिया की तरफ़ आए थे ये शबिस्ताँ भी इसी ग़ालिया-मू का निकला हम अबस सोज़न-ओ-रिश्ता लिए गलियों में फिरे किसी दिल में न कोई काम रफ़ू का निकला यार-ए-बे-फ़ैज़ से क्यूँ हम को तवक़्क़ो' थी 'फ़राज़' जो न अपना न हमारा न अदू का निकला