किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे गुज़र गई जरस-ए-गुल उदास कर के मुझे मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्ताँ में जगा के छोड़ गए क़ाफ़िले सहर के मुझे मैं रो रहा था मुक़द्दर की सख़्त राहों में उड़ा के ले गए जादू तिरी नज़र के मुझे मैं तेरे दर्द की तुग़्यानियों में डूब गया पुकारते रहे तारे उभर उभर के मुझे तिरे फ़िराक़ की रातें कभी न भूलेंगी मज़े मिले उन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ ग़म-ए-दुनिया बुला रहा है कोई बाम से उतर के मुझे फिर आज आई थी इक मौज-ए-हवा-ए-तरब सुना गई है फ़साने इधर उधर के मुझे