किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ उधर उधर की कहूँ ज़ख़्म-ए-दिल अयाँ न करूँ लगा के आग बदन में वो मुझ से चाहता है कि साँस लूँ तो फ़ज़ा को धुआँ धुआँ न करूँ मैं उस को पढ़ता हूँ इंजील-ए-आरज़ू की तरह समझ में आए तो मा'नी हर इक बयाँ न करूँ ग़ज़ब है मुझ से तवक़्क़ो' ज़माना रखता है कि पा-शिकस्तगी में रंज-ए-रफ़्तगाँ न करूँ ये हुक्म मुझ को मिला क़स्र-ए-ख़ुसरवी से कि मैं फ़ुग़ाँ सुनूँ मगर अंदाज़ा-ए-फ़ुगाँ न करूँ मज़े से सोऊँ अगर हाथ आए शाम-ए-फ़िराक़ मैं एक लम्हा भी इस शब का राएगाँ न करूँ उठा के सर पे फिरूँ बार-ए-आरज़ू 'मोहसिन' कमर को ख़म मैं कभी सूरत-ए-कमाँ न करूँ