किसी के साथ भी उस ने वफ़ा निभाई क्या बस इस सवाल पे देता रहूँ दुहाई क्या जिसे न होश है ख़ुद का न फ़िक्र दुनिया की तो उस को सोचिए परवाह-ए-जग-हँसाई क्या अब आसमान मिले या मिले क़फ़स हम को वो साथ हों तो हमें क़ैद क्या रिहाई क्या उन्हों ने ख़त नहीं भेजा प ये बता क़ासिद उन्हें हमारी कभी याद भी न आई क्या बुझी बुझी सी तबीअत है क्यूँ मिरी यारो उन्हों ने फिर मिरी झूटी क़सम उठाई क्या तमाम उन के बहाने हैं 'राज़' वर्ना वो जब आ रहे हैं तो फिर जून क्या जुलाई क्या