किसी को ज़हर दूँगा और किसी को जाम दूँगा मैं अपने जाँ-निसारों को यही इनआम दूँगा अँधेरे में दमक उठते हैं जितने भी सितारे अगर फ़ुर्सत मिली तो मैं उन्हें कुछ नाम दूँगा किसी तारीक मिट्टी पर मुझे भी साथ रखना कि मैं तुझ को किसी मुश्किल घड़ी में काम दूँगा थका-हारा हूँ तन्हा हूँ मगर ये बात तय है मैं तोहफ़े में तुझे इक रोज़ मुल्क-ए-शाम दूँगा दुकान-ए-अस्लहा से मैं ने जो शमशीर ली है मैं उस के दाम पूछूँगा न उस के दाम दूँगा मुझे हर रोज़ कहता है ये बात अब मेरा बेटा तुझे मैं इस बुढ़ापे में बहुत आराम दूँगा