किसी पे बार-ए-दिगर भी निगाह कर न सके कोई भी शौक़ ब-हद्द-ए-गुनाह कर न सके उजड-पने में तलब कर गए जवाज़-ए-ख़ता ख़िज़र के साथ भी हम तो निबाह कर न सके दयार-ए-हिज्र बसाया है जो कि बरसों में दम-ए-विसाल की ख़ातिर तबाह कर न सके अमाँ तलब न हुए दश्त-ए-बे-पनाह में हम सवाद-ए-जाँ भी मगर हर्फ़-ए-राह कर न सके सफ़र-मआब यही बहर-ओ-बर है फिर भी हम परों को अपने कुशा ख़्वाह-मख़ाह कर न सके