किसी से बस कि उमीद-ए-कुशूद-ए-कार नहीं मुझे अजल के भी आने का ए'तिबार नहीं जवाब नामे का क़ासिद मज़ार पर लाया कि जानता था उसे ताब-ए-इंतिज़ार नहीं ये कह के उठ गई बालीं से मेरी शम-ए-सहर तमाम हो गई शब और तुझे क़रार नहीं जो तू हो पास तो हूर-ओ-क़ुसूर सब कुछ हो जो तू नहीं तो नहीं बल्कि ज़ीनहार नहीं ख़िज़ाँ के आने से पहले ही था मुझे मा'लूम कि रंग-ओ-बू-ए-चमन का कुछ ए'तिबार नहीं ग़ज़ल कही है कि मोती पिरोए हैं ऐ 'नज़्म' वो कौन शे'र है जो दुर्र-ए-शाहवार नहीं