किसी से भी नहीं हम सब्र की तल्क़ीन लेते हैं हमें मिलती नहीं जो चीज़ उस को छीन लेते हैं बुढ़ापा आ गया लेकिन नहीं बदला मिज़ाज उन का अभी तक कपड़े वो अपने लिए रंगीन लेते हैं फ़क़ीरों को कभी दर से न ख़ाली लौटने देना दुआएँ देते हैं ख़ैरात जब मिस्कीन लेते हैं वो सारे लोग रंज-ओ-ग़म से पा जाते हैं आज़ादी जो सुब्ह-ओ-शाम विर्द-ए-सूरा-ए-यासीन लेते हैं तुम्हें हैरत है क्यों अहल-ए-फ़िलिस्तीं की शुजाअ'त पर यज़ीदों से सदा लोहा तो अहल-ए-दीन लेते हैं