किसी से वस्ल में सुनते ही जान सूख गई चलो हटो भी हमारी ज़बान सूख गई इक आह-ए-गर्म ने झुलसाए ख़ोशा-ए-अंजुम तमाम खेती तिरी आसमान सूख गई क़यामत और वो हंगामा फिर क़यामत का लहद से उठते ही धड़कों से जान सूख गई रहा न बा'द मिरे हाए कोई आबला-पा पुकारते हैं ये काँटे ज़बान सूख गई शब-ए-फ़िराक़ का आधा नहीं रहा तन-ओ-तोश ये मेरे घर जो हुई मेहमान सूख गई मिला भी हम को तो बे-वक़्त इस तरह खाना कि चावल ऐँठ गए और नान सूख गई बहुत ही फूली हुई थी ये अपनी रंगत पर जो देखा रंग मिरा ज़ाफ़रान सूख गई हवा-ए-गर्म ख़िज़ाँ में वो रंग-ओ-रूप कहाँ थी अंदलीब यूँही धान-पान सूख गई 'रियाज़' याद है उन का विसाल में कहना ख़ुदा के वास्ते छोड़ो ज़बान सूख गई