किसी सूरत से हो जाता है सामान-ए-सफ़र पैदा इरादा कर ही लेता है ख़ुद अपनी रहगुज़र पैदा गुनहगारी की निय्यत को गुनहगारी नहीं कहते सफ़र के क़स्द से होती है कब गर्द-ए-सफ़र पैदा ज़रूरी क्या कि बरसे आग ऊपर से नशेमन पर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं हो जाएँगे बर्क़-ओ-शरर पैदा कोई पुरसान-ए-ग़म हो या न हो क्या फ़र्क़ पड़ता है अज़िय्यत ख़ुद ही कर लेती है अपना चारागर पैदा 'मुनव्वर' मुझ पे शाम-ए-यास ग़ालिब आ नहीं सकती कि हर उम्मीद से होता है इक रंग-ए-सहर पैदा