किसी तलब में हुआ मैं न दर-ब-दर अब के रहा निगाह का मेहवर बस अपना घर अब के न जाने कितने ही रस्ते थे मुंतज़िर लेकिन सिमट के रह गया क़दमों में ही सफ़र अब के ये इंतिज़ार की शिद्दत न थी कभी पहले मुहीत लगता है सदियों पे लम्हा भर अब के बहार-ए-लाला-ओ-गुल के क़सीदे ख़त्म हुए ख़िज़ाँ का मर्सिया पढ़ता है हर शजर अब के ये कैसा नशा मुसल्लत था अब के ज़ेहनों पर तबाहियों से रहे सब ही बे-ख़बर अब के समर की परवा किए बिन ही हम ने बोया है ज़मीन-ए-ख़्वाब पे उम्मीद का शजर अब के अजीब मौसम-ए-कर्ब-ओ-बला है गुलशन में रखा है ग़ुंचों ने काँटों पे अपना सर अब के घुटन में वक़्त की बारूद बन गया हूँ 'सुख़न' न फूँक दे मुझे आ कर कोई शरर अब के