किसी तरह भी वो तकमील-ए-मुद्दआ' करते वफ़ा की ख़ू जो नहीं थी तो फिर जफ़ा करते अदा-ए-हुस्न तो तालिब है जाँ-सिपारी की कलीम कैसे तजल्ली का सामना करते तमाम उम्र ख़ुदा से यही दुआ माँगी वो दिन भी आता जो वो मुझ से इल्तिजा करते हमें किसी की तलब का भरम तो रखना था जो हम ये जान न देते तो और क्या करते फ़क़त तहफ़्फ़ुज़-ए-कश्ती का ध्यान था वर्ना हम और मिन्नत-ए-एहसान-ए-नाख़ुदा करते ज़रा बताएँ जो फ़ुर्क़त में हम पे बीत गई ये वक़्त आप पे पड़ता तो आप क्या करते मैं उन के लब की दुआ का उठाऊँ क्यों एहसान जो देखने को न आए वो क्या दुआ करते वफ़ा है आज भी हल-मि-म्मज़ीद की तालिब 'हबीब' मर गए कितने वफ़ा वफ़ा करते