किसी थकन को सुख़न बना लूँ यही बहुत है मैं चंद फ़ुर्सत के पल बचा लूँ यही बहुत है हुनर का हक़ तो हवा की बस्ती में कौन देगा इधर मैं अपना दिया जला लूँ यही बहुत है ये हिज्र के ज़ख़्म भी बड़े लाला-कार दिल हैं मैं घर के रंगों से घर सजा लूँ यही बहुत है वो आरिफ़ान-ए-सबक़ कहाँ अब जो दिल बढ़ाएँ मैं सच लिखूँ हर्फ़ की दुआ लूँ यही बहुत है थमी न यलग़ार-ए-वक़्त कहता ही रह गया मैं अभी मैं इतना ही बोझ उठा लूँ यही बहुत है