किताब-ए-ज़िंदगी का हर वरक़ कहने को सादा है

किताब-ए-ज़िंदगी का हर वरक़ कहने को सादा है
मगर जो कुछ भी लिक्खा है हुरूफ़-ए-ख़ूँ में लिक्खा है

ये सारी शान-ओ-शौकत कुछ नहीं नज़रों का धोका है
असासा आशियाने का जिसे कहते हो तिनका है

लहू दे कर जो सींचा था गुलिस्तान-ए-वफ़ा हम ने
गुलों के जिस्म से वो रंग बन कर फूट निकला है

ये मेरी ख़ुश-नसीबी है कि उस बुत ने ब-दस्त-ए-ख़ुद
सर-ए-फ़िहरिस्त दीवानों में मेरा नाम लिक्खा है

हवाएँ ढूँढती फिरती हैं उस मर्द-ए-मुजाहिद को
फ़राज़-ए-दार पर जिस ने चराग़-ए-ज़ीस्त रक्खा है

यक़ीनन ज़ख़्म-ए-दिल के सारे टाँके टूट जाएँगे
तिरी नज़रों का जादू दिल पे शो'ला बन के लपका है

कभी शहर-ए-तमन्ना में तो आकर देख जाते वो
दर-ओ-दीवार पर हर सम्त किस का नाम लिक्खा है

सितम का और मौक़ा उस को मिल जाएगा ऐ 'हैरत'
इसी बाइ'स वो जीने की दुआएँ मुझ को देता है


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