कितने दिल टूटे हैं दुनिया का ख़बर होने तक कितने सर फूटे हैं दीवार में दर होने तक एक काँटा जो निकलता है तो सौ चुभते हैं अम्न था हौसला-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र होने तक हम ने अपने से भी सौ बार मोहब्बत की है हाँ मगर दिल में किसी शोख़ का घर होने तक अब कहीं रक़्स-ए-जुनूँ है तो कहीं नग़मा-ए-ख़ूँ कितनी सूनी थी फ़ज़ा ज़ेर-ओ-ज़बर होने तक आज सुनता हूँ वही नक़्श-ए-क़दम चूमते हैं जो बहुत ख़ुश थे मिरे शहर-बदर होने तक आँखों आँखों में भी कट जाए तो हम राज़ी हैं ये अँधेरे है बस इक रात बसर होने तक जब झुलस देगा ज़माना तो न उम्मीद न यास शाख़ को ख़ौफ़ है बे-बर्ग-ओ-समर होने तक इस क़यामत का जो पूछो तो कोई नाम नहीं हम पे जो बीत गई तुम को ख़बर होने तक इक किरन फूटेगी इक शोख़ हवा सनकेगी इसी उम्मीद में जागे हैं सहर होने तक और इक नारा-ए-मस्ताना कि महफ़िल जागे और इक जाम ज़माने को ख़बर होने तक उन के होंटों पे वो मा'सूम तबस्सुम की शगुफ़्त शोला-ए-नर्म बनी लम्स-ए-नज़र होने तक मेरी बर्बादी भी इक हश्र है लेकिन 'ज़ैदी' इर्तिक़ा रक़्स में है हश्र-ए-दिगर होने तक