कितना अजीब शब का ये मंज़र लगा मुझे तारों की सफ़ में चाँद सुखनवर लगा मुझे सोचा तो हम-सफ़र मुझे तन्हाइयाँ मिलीं देखा तो आसमान भी सर पर लगा मुझे तुझ से बिछड़ के ये मिरी आँखों को क्या हुआ जिस पर नज़र पड़ी तिरा पैकर लगा मुझे ये किस ने आ के शहर का नक़्शा बदल दिया देखा है जिस किसी को वो बे-घर लगा मुझे सिमटा तिरा ख़याल तो दिल में समा गया फैला तो इस क़दर कि समुंदर लगा मुझे 'बिस्मिल' वो मेरी जान का दुश्मन तो था मगर क्यूँ पूरी काएनात से बेहतर लगा मुझे