कितना दिलकश फ़रेब-ए-हस्ती है ज़िंदगी मौत को तरसती है ये नशेब-ओ-फ़राज़ हस्ती है हर बुलंदी को एक पस्ती है देख कर क्या करोगे दिल की तरफ़ एक उजड़ी हुई सी बस्ती है मौत आ कर जिसे उठाएगी ज़िंदगी वो हिजाब-ए-हस्ती है जान दे कर मिले जो उस की रज़ा फिर भी महँगी नहीं है सस्ती है रुख़ घटा का है सू-ए-मय-ख़ाना देखिए अब कहाँ बरसती है उस के नग़्मों से मस्त है दुनिया कितना पुर-कैफ़ साज़-ए-हस्ती है है ये सौदा यक़ीन का 'शंकर' बुत-परस्ती भी हक़-परस्ती है