कितना दुश्वार ये साँसों का सफ़र लगता है ज़िंदगी अब तो तिरे नाम से डर लगता है पस-ए-दीवार पड़ोसी कोई रोता है अगर अपने एहसास का दामन मुझे तर लगता है झाँकते हैं दर-ओ-दीवार से यादों के नुक़ूश मुझ को आसेब-ज़दा अपना ही घर लगता है ताज रक्खे हुए जब देखे अजाइब घर में साथ उन के मुझे अस्लाफ़ का सर लगता है मुझ को तन्हाई का एहसास नहीं होता कभी वो मेरे पास नहीं होता मगर लगता है उस से होती है 'रज़ा' दाद की उम्मीद मुझे बज़्म में जब भी कोई अहल-ए-नज़र लगता है