कितना रोका मगर रुका ही नहीं और मुड़ कर तो देखता ही नहीं तेरी चौखट का भारी दरवाज़ा दस्तकें दे के भी खुला ही नहीं मुझ में इतना बिखर गया है वो लाख चाहूँ सिमट रहा ही नहीं साहिबा दोस्त मान रक्खा था और तू दुख में बोलता ही नहीं हिज्र ने ख़ुद भी ये गवाही दी वापसी का तो रास्ता ही नहीं कुंज-ए-तन्हाई में असीर-ए-इश्क़ ख़ुद से बाहर कभी गया ही नहीं एक मुद्दत से आश्ना हैं मगर आइने से मुकालिमा ही नहीं किस मोहब्बत की बात करते हो जिस मोहब्बत में दिल जला ही नहीं किस को इतना मक़ाम देते हम इतना अच्छा कोई लगा ही नहीं कुछ तो होता कि ज़िंदगी करते इस तअल्लुक़ का कुछ सिला ही नहीं सारी दुनिया शुमार बैठी हूँ या'नी गिनती में 'राबिया' ही नहीं