कितना ज़ालिम मिरी चाहत का मुक़द्दर निकला मैं जिसे आइना समझा था वो पत्थर निकला सेज फूलों की समझता था तिरे साथ जिसे तेरी फ़ुर्क़त में वो काँटों-भरा बिस्तर निकला याद-ए-जानाँ में लगी धूप भी साए की तरह याद-ए-जानाँ में कभी घर से जो बाहर निकला हैं हसीं और भी लेकिन जिसे चाहा मैं ने मेरी नज़रों में वो हर एक से बढ़ कर निकला जो कि दोज़ख़ थी वो जन्नत नज़र आई दुनिया जब भी मय-ख़ाने से बाहर कभी पी कर निकला इश्क़-ए-लैला के सबब हो गया कितना मशहूर क़ैस भी कितना मुक़द्दर का सिकंदर निकला नाज़ था मुझ को बहुत अपनी अना पर लेकिन ख़ुद को जब परखा तो मैं औरों से कमतर निकला दूर से मुझ को समुंदर भी लगा मिस्ल-ए-सराब पास से देखा तो क़तरा भी समुंदर निकला कौन ख़ुश-बख़्त ज़माने से अटा है यारो तज़्किरा किस की अजल का है जो घर घर निकला चश्म-ए-बीना से 'ज़फ़र' देखा तो महसूस हुआ या'नी हर ज़र्रा भी ख़ुर्शीद का पैकर निकला