कितने असरार वाहिमे में हैं हम कि मसरूफ़ खोजने में हैं हम-सफ़र ला-मकान को पहुँचा और हम पहले मरहले में हैं तो अभी तक दिखा नहीं है हमें हम अभी तक मुराक़बे में हैं ये जो खिड़की के पार मंज़र है मसअला उस को देखने में हैं अपनी अपनी ही फ़िक्र है सब को अपने अपने ही दाएरे में हैं वाइज़ा इंतिज़ार कर थोड़ा शैख़-साहिब तो मय-कदे में हैं ये ख़िरद को शिकस्त देंगे मियाँ ये तो मजनूँ के क़ाफ़िले में हैं भेद जितने हैं काएनात अंदर एक नुक़्ते के सिलसिले में हैं