कितने दर वा हैं कहीं आँख मिलाएँ तो सही इस नए शहर से कुछ रब्त बढ़ाएँ तो सही किसी ख़ुश्बू के तआ'क़ुब में चलीं गाम-दो-गाम ध्यान में चाँदनी का शहर बसाएँ तो सही कुछ तो कहती है सर-ए-शाम समुंदर की हवा कभी साहिल की ख़ुनुक रेत पे जाएँ तो सही क्या ख़बर ओट में हों उस की मनाज़िर क्या क्या अपने पिंदार की दीवार गिराएँ तो सही दिल के औराक़ पे अब ताज़ा हिकायात लिखें नए लम्हों में नया ख़ून रचाएँ तो सही अपने बिखरे हुए ज़र्रों को समेटें फिर से बज़्म फिर रक़्स-ए-तमन्ना की सजाएँ तो सही 'शाम' ये रौशनी ये रंग के फैले हुए जाल इक ज़रा उन के तिलिस्मात में आएँ तो सही