कितने मेले हैं आसमानों में और हम बंद हैं मकानों में नस्ल-ए-आदम निकल के ग़ारों से आ गई है किताब-ख़ानों में लोग करते हैं इंतिज़ार मिरा तीर खींचे हुए कमानों में अज़दहे हैं ब-सूरत-ए-अश्या सर उठाए हुए दुकानों में हम वो सहरा-नवर्द हैं जिन का नज्द फैला है आसमानों में साअ'तों से गुज़र रही है रात आग रौशन रखो मकानों में