कितनी आसानी से दुनिया की गिरह खोलता है मुझ में इक बच्चा बुज़ुर्गों की तरह बोलता है क्या अजब है कि उड़ाता है कबूतर पहले फिर फ़ज़ाओं में वो बारूद की बू घोलता है रूप कितने ही भरें कितने ही चेहरे बदलें आईना आप को अपनी ही तरह तौलता है सोच लो कल कहीं आँसू न बहाने पड़ जाएँ ख़ून का क्या है रगों में वो यूँही खौलता है हाथ उठाता है दुआओं को फ़लक भी उस दम जब परिंदा कोई परवाज़ को पर तौलता है कौन वाक़िफ़ नहीं संसार के सच से लेकिन सब का संसार की हर चीज़ पे मन डोलता है