किया जब सब्र फ़ुर्क़त में तो फिर ज़िक्र-ए-बुताँ कैसा ब-आह-ओ-ज़ारियाँ कैसी हैं ये शोर-ए-फ़ुग़ाँ कैसा बगूले की तरह से ख़ाक उड़ाना है मुक़द्दर में वतन क्या ख़ानमाँ-बर्बाद का तेरे मकाँ कैसा हुआ फ़िक्र-ओ-तसव्वुर से वो तस्वीर-ए-सनम जब तो बिगड़ जाना है अब मुझ से दिल-ए-ना-मेहरबाँ कैसा क़फ़स में बंद हूँ मैं गो क़फ़स हो शाख़-ए-तौबा पर ये मेरे वास्ते क़ैद-ए-मिहन है बोस्ताँ कैसा ये साबित हो चुका तुम पर नहीं डरते ये मरने से लिया करते हो जाँ-बाज़ों का फिर तुम इम्तिहाँ कैसा लहद में चैन मिलता है कहाँ ज़हमत-नसीबों को झपकती ही नहीं आँखें मिरी ख़्वाब-ए-गिराँ कैसा क़दम रखना ज़मीं पर ज़ोफ़ से मुझ को हुआ मुश्किल क्या दर्द जिगर ने आह मुझ को ना-तवाँ कैसा अंधेरे हो गए हैं दोनों आलम मेरी नज़रों में ज़मीं कैसी है मेरे वास्ते और आसमाँ कैसा 'जमीला' आलिमों से साफ़ कह दे तुझ को डर किस का मकान-ए-दिल मक़ाम-ए-किबरिया है ला-मकाँ कैसा