क्यूँ क़त्ल के अरमान में आज़ार उठाएँ गर्दन मिरी हाज़िर है वो तलवार उठाएँ रोके से मिरी तब-ए-रवाँ रुक न सकेगी रस्ते में मिरे लाख वो दीवार उठाएँ जो दिल में तुम्हारे है बता क्यूँ नहीं देते सदमा जो उठाना है तो यकबार उठाएँ क्यूँ लोग हैं ख़ामोश ज़बूँ-हाल पे अपने आवाज़ सर-ए-कूचा-ओ-बाज़ार उठाएँ ख़ुद ही जो पस-ए-पर्दा-ए-असरार छुपे हैं वो कैसे भला पर्दा-ए-असरार उठाएँ नीलाम जो करते हैं यहाँ जिंस-ए-वफ़ा को मुमकिन ही नहीं नाज़-ए-ख़रीदार उठाएँ ये जुर्म-ए-मोहब्बत नहीं वाइ'ज़ का मुक़द्दर ये बार-ए-गुनाह हम से गुनहगार उठाएँ फिरते हैं जो आज़ाद उन्हें कैसे ख़बर हो ज़िंदाँ में जो तकलीफ़-ए-गिरफ़्तार उठाएँ 'शाहिद' यही लिक्खा है मुक़द्दर में हमारे सदमात ज़माने में लगातार उठाएँ