क्यूँ याद ये सब क़हत के अस्बाब न आए जब हम ने दुआ की थी कि सैलाब न आए हम को तो उतरना है समुंदर की तहों में हाथ आए कि अब गौहर-ए-नायाब न आए तदबीर के मेहवर पे रहा में यूँही रक़्साँ ताबीर के मरकज़ पे मिरे ख़्वाब न आए बाहर जो उठे शोर तो खिड़की से न झाँको आँखों पे तुम्हारी कहीं तेज़ाब न आए एलान किया उड़ती हुई ख़ाक ने हर सम्त मंज़र पे कोई ख़ित्ता-ए-शादाब न आए मैं ने जो कहा तुख़्म-ए-वफ़ा हैं मिरे आँसू कहने लगे मिट्टी में उन्हें दाब न आए निकले हैं सर-ए-शाम लिए मशअ'ल-ए-फ़न हम नज़दीक कोई काग़ज़ी महताब न आए