कोह-ए-ख़दशात सर हुआ ही नहीं पार क्या है मैं जानता ही नहीं मैं रुका था तो वक़्त रुक जाता लाख रोका मगर रुका ही नहीं कितने अरमाँ से खटखटाया था हाए अफ़्सोस दर खुला ही नहीं अब कोई चोट लग भी जाए तो क्या दिल में अब ज़ख़्म की जगह ही नहीं एक लम्हा जिसे मैं हार चुका कैसे कह दूँ वो मेरा था ही नहीं जाने क्या खो गया था राहों में आज तक जो मुझे मिला ही नहीं लज़्ज़तें दर्द में छुपी हैं 'उबैद' राहतों में कोई मज़ा ही नहीं