कोई भी दर न मिला नारसी के मरक़द में मैं घुट के मर गया अपनी सदा के गुम्बद में ग़ुबार-ए-फ़िक्र छटा जब तो देखता क्या हूँ अभी खड़ा हूँ मैं हर्फ़-ओ-नवा की सरहद में मिरे हरीफ़ों पे बे-वज्ह ख़ौफ़ ग़ालिब है है कौन मेरे सिवा मेरे वार की ज़द में कोई ख़बर ही न थी मर्ग-ए-जुस्तुजू की मुझे ज़मीं फलाँग गया अपने शौक़-ए-बेहद में अजब था मैं भी कि ख़ुद अपनी ही सना की 'ज़ेब' फिर एक हज्व कही इस क़सीदे की रद्द में