कोई भी लम्हा हो इक आग लगा जाती है याद-ए-माज़ी है कि रंग अपना दिखा जाती है दिल में उम्मीद की दीवार उठे या न उठे आगही दर्द की दहलीज़ बना जाती है जाने वो कौन सी इक लहर छुपी है दिल में साज़-दर-साज़ कई गीत सुना जाती है ग़म के ज़िंदाँ में दर आता है जो सन्नाटा कभी आरज़ू चुपके से ज़ंजीर हिला जाती है हम कहाँ उठते हैं एहसास की दस्तक पे भला वो तो कहिए कोई आवाज़ लगा जाती है जब कभी रात छुपाती है बदन की शिकनें रौशनी बढ़ के हर इक राज़ बता जाती है थक के सो जाती हैं जब सोच की किरनें 'अतहर' कोई लय बढ़ के लहू अपना जला जाती है