कोई भी शहर में खुल कर न बग़ल-गीर हुआ मैं भी उकताए हुए लोगों से उकता के मिला दिन के काँधे पे दहकते हुए सूरज की सलीब रात की गोद में ठिठुरा हुआ महताब मिला कहीं अश्कों के दिए हैं न तबस्सुम के चराग़ लोग पत्थर के हुए जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता नींद पलकों के दरीचे से लगी बैठी है सोने देता ही नहीं गर्म हवा का झोंका वो चहकती हुई खिड़की न महकते दर-ओ-बाम उन के कूचे में भी कल मौत का सन्नाटा था लाख तहज़ीब के ग़ारों में छुपे हम 'अख़्तर' फिर भी उर्यानियत-ए-वक़्त से दामन न बचा