कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला हर एक जलते हुए ग़म के साएबाँ में मिला कोई न ज़ेहन में सूरत न कोई ख़ाका है वो मुझ से जब भी मिला मल्गजे धुआँ में मिला बयान करने पे आऊँ तो लफ़्ज़ टूटते हैं वो एक अक्स जो बुझते हुए समाँ में मिला वो शय कि जिस ने धुआँ दिल में मेरे फैलाया निशान उस का न कुछ दूर तक धुआँ में मिला सफ़र तमाम हुआ इतनी ख़ुश-ख़िरामी से तनाव भी नहीं कश्ती के बादबाँ में मिला ज़रा ये सोच हक़ीक़त बना तो क्या होगा वो शाइबा जो मुझे सरहद-ए-गुमाँ में मिला सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है मुझे भी जज़्ब ज़रा कर के जिस्म-ओ-जाँ में मिला ठहर सकेगा न हर शख़्स ज़द पे सोचा नहीं वो तीर चल गया जो वक़्त की कमाँ में मिला जो मुझ पे मैच करे मेरा अपना कहलाए लिबास ऐसा न मुझ को सजी दुकाँ में मिला