कोई दिल में आ बैठा और चुटकी ली अरमानों में रात अजब मंज़र देखा जब चाँद खिला मैदानों में पेट की ज़िल्लत ने बिल-आख़िर बाज़ारों नीलाम किया इज़्ज़त जाने क़ैद थी कब से मौरूसी तह-ख़ानों में जैसे कोई धीमे लफ़्ज़ों मेरा नाम पुकारे है एक सदा रह रह कर अब भी दर आती है कानों में यादों की एक तितली फिरती रहती है बेचैनी से प्यार के बासी भूल अभी तक रक्खे हैं गुल-दानों में सोच से इस को दूर रखूँ मैं जब भी लिक्खूँ दुनिया की जाने कैसे बस जाता है वो मेरे अफ़्सानों में नाप-तोल कर नज़्में ग़ज़लें कहना तुम फ़रहान-'हनीफ़' वज़्नी वज़्नी बाट रखे हैं तन्क़ीदी मीज़ानों में