कोई फ़ित्ना कोई फ़ुसूँ भी नहीं ज़िंदगी है कि पुर-सुकूँ भी नहीं घर में सहरा में इम्तियाज़ तो कर अब तो हंगामा-ए-जुनूँ भी नहीं कल तलक था जो साथ साथ मेरे अब वो इक लम्हा-ए-सुकूँ भी नहीं होश जब दे रहा हो दर्स-ए-वफ़ा क्या करूँ मैं जो चुप रहूँ भी नहीं क्या सितम है कि आज-कल मैं 'रसा' कुछ कहूँ भी नहीं सुनूँ भी नहीं