कोई फ़रियाद मुझे तोड़ के सन से निकली यूँ लगा जैसे मिरी रूह बदन से निकली आदतन मैं किसी एहसास के पीछे लपका दफ़अ'तन एक ग़ज़ल दश्त-ए-सुख़न से निकली रंग किस का था जो दस्तक से नुमूदार हुआ किस की ख़ुशबू थी जो कमरे की घुटन से निकली किस का चेहरा था जो सदियों के भँवर से उभरा कैसी वहशत थी जो बरसों की थकन से निकली एक साए के तआ'क़ुब में कोई परछाईं प्यास ओढ़े हुए सहरा-ए-बदन से निकली कुछ तो ऐसा था कि बुनियाद से हिजरत कर ली ख़ाक यूँही तो नहीं अपने वतन से निकली राख जमने लगी जब रात की आँखों में 'नबील' नींद आहिस्ता से बिस्तर की शिकन से निकली