कोई हद भी है आख़िर इम्तिहाँ की इलाही ख़ैर क़ल्ब-ए-ना-तवाँ की ये है इक मोहर बे-बाल-ओ-परी पर रिहाई भी रिहाई है कहाँ की ख़िज़ाँ का वसवसा है फ़स्ल-ए-गुल में ज़रूरत है बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ की ज़मीं पर हैं वो कुछ मिट्टी के पुतले कि जिन में रिफ़अतें हैं आसमाँ की